प्रसंगवश: राजेश सिरोठिया
संदर्भ महाराष्ट्र का है और प्रजातंत्र के कत्लेआम की गूंज है। लोकशाही की हत्या का आरोप जडऩे वाली पार्टी कांग्रेस है। शिवसेना है और दीगर कई विपक्षी दल हैं। कांग्रेस ने इसी तरह के लोकशाही के कत्ल के इल्जाम गोवा , कर्नाटक, और उत्तर पूर्वी राज्यों में जोड़तोड़ करके भाजपा की अगुआई में सरकार बनने पर लगाए थे। कांग्रेस ने भाजपा खासतौर पर उसके दो प्रमुख चेहरों नरेंद्र दामोदर दास मोदी और अमित शाह को अपने निशाने पर ले रखा है। अपनी निजी परेशानियों की चिंता छोड़ देश के लोकतंत्र के लिए कांग्रेस की चिंता वाजिब है। लेकिन क्या कांग्रेस यह भूल चुकी है कि जब वह खुद सत्ता में रही तो उसने लोकतंत्र का गला न घुटे इसकी कितनी चिंता की? कांग्रेस जब इंदिरा जी के दौर में लोकतंत्र का कत्ल करती थीं तो बवाल ज्यादा होता था, बिल्कुल वैसे ही जैसा आज नरेंद्र मोदी के दौर में हो रहा है। जहां तक महाराष्ट्र के संदर्भ में बात करें तो देवेंद्र फणनवीस के साथ एनसीपी विधायक दल के निर्वाचित नेता अजीत पवार ने जिस तरह से ताबड़तोड़ सीएम और डिप्टी सीएम के बतौर शपथ ली, उससे कांग्रेस की लोकतंत्र को लेकर चिंता वाकई वाजिब है। चोरों की तरह गुपचुप शपथ के खेल में राज्यपाल की भूमिका पर भी उसके सवाल जायज ही हैं। लेकिन भाजपा का एनसीपी से मिलना गलत है और शिवसेना के साथ कांग्रेस की गलबहियां उचित हैं? विपरीत वैचारिक अधिष्ठान पर खड़े रहने के बावजूद शिवसेना से मिलन पुण्य और फणनवीस और अजित पवार पापी? क्या कोई यह बताएगा कि राज्यपाल को केंद्र सरकार के रबर स्टैंप के बतौर इस्तेमाल की परंपरा को किसने शुरू किया? कांग्रेस में इंदिरा युग में किसने धारा 356 के बेजा इस्तेमाल करके चुनी हुई सरकारों को हटाने का काम प्रारंभ किया? लेकिन कांग्रेस और भाजपा सहित सभी दलों में अपनी सुविधा के हिसाब से लोकतंत्र के मरण और जीवन की परिभाषा यथा समय और हालात गढऩे की कला विकसित कर ली है। सबसे मजेदार पार्टी तो शिवसेना है। पांच साल पहले वह 2014 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा के साथ थी। लेकिन विधानसभा आते-आते वह गुरूर पाल बैठी भाजपा के साथ न सिर्फ अलग होकर चुनाव लड़ी बल्कि उसने भाजपा के साथ सरकार बनाने के लिए हाथ नहीं मिलाया। देवेंद्र फणनवीस की सरकार एनसीपी के बाहरी सहयोग से बनीं और पूरे पांच साल शिवसेना भाई देवेंद्र फणनवीस को आंखें दिखाती रही। लेकिन उसने महाराष्ट्र की सरकार को गिरने नहीं दिया। लेकिन लोकसभा चुनाव आते आते वह फिर भाजपा की सहयोगी बन गई। देवेंद्र और उद्धव ने विधानसभा का चुनाव एक दूसरे पर जान छिडक़ते हुए लड़ा। ऐसे लगा कि बरसों पुराने दोनों भाई मिल गए हैं। जनता ने भी दोनों को सरकार चलाने का संयुक्त जनादेश दिया। लेकिन शिवसेना अपने कानूनी पति को छोडक़र दो-दो पड़ोसियों से विवाह की जिद कर बैठी? उसकी इस बेवफाई से दुखी भाजपा ने उसके पड़ोसन की बहन को अपने साथ विवाह के लिए राजी कर लिया। करनाटक में क्या हुआ था। विधानसभा चुनाव के पूरे अभियान के दौरान राहुल गांधी जेडीएस और उसके नेता कुमार स्वामी को भाजपा की बी टीम बताते रहे और नतीजे आते ही भाजपा की बी टीम के नेता कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। ऐसा कांग्रेस ने चौधरी चरण सिंह से लेकर चंद्रशेखर और देवेगौड़ा से लेकर इंद्रकुमार गुजराल तक कई बार किया। अपने राजनीतिक हित साधे और उनको बीच सडक़ पर पटखनी दे दी। कहने का मतलब यही है कि लोकतंत्र का गला सभी घोंट रहे हैं। किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। सभी शरीके जुर्म हैं। लेकिन लोकतंत्र है जो मर ही नहीं रहा। इस देश के अवाम में परिपक्व होते लोकतांत्रिक भाव इस जम्हूरियत को मरने नहीं दे रहे।
